जीवन से अतिजीवन तक की
दूरी तय करने निकली थी
सागर की लहरें जीवन के
पन्ने याद दिला रही थी ..
रेत में बने महलों की
मासूम सी कुछ हँसियों की
बादल और सागर की मिलन
पहले महसूस करवाई माँ की ...
गीले रेत में बने उनके
पैरों के निशानियों में
अपना पूरा पाँव समेटकर
उगाये जो पर्वत सुरक्षा की..
समय के साथ बदले साथी
साथ लिखे रेत में कहानी
अनजान रही कब रास्ता बदला
अब बनते ही निशानियां
सागर खुद में छुपा लेती है
हैरान हूँ कब बदले, सारे
धूप जीवन के ,साए में।.
सब बदला पर सागर मेघा से
यूँ ही मिलते आते हैं
उसी मिलन में भीग कर मेरी
चीख छुपाने आई थी
जीवन से अतिजीवत तक की
दूरी नापने आई थी...
बरसा के संगीत से तेज
आ गिरी कुछ कानो में
कांपी में चली उसी ओर
देखी जैसे सपना हो
जूठे खाने की टुकडो में
पड़ी थी एक नन्ही सी जान
न जाने किस बीज और कोख ने
श्राप की दर्जा दी उसको
पिघल जाता पत्थर भी उसपर
पर इंसान से हैं क्या उम्मीद??
खडी थी एक कुतिया सामने
बचाके उसको हर एक बूँद से.
रोक न पाई अपने आप को
दे दी अपनी छाती की गरमी
तरसती ममता को पीकर वो
सोने लगी निर्मल शान्ति से।.
समझ चुकी थी में
अतिजीवन से जीवन की दूरी
बस एक पल प्यार की हैं
सिर्फ प्यार की हे| :)
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