Saturday 20 June 2009

साया



ये साया भी अजीब हैं
कभी हमें छोटा करती हैं
तो कभी हमें ही बड़ा बनते हैं
कब्भी ये गुमराह करती हैं
तो कभी नज़र नही आती
सूच रही हु आख़िर जिंदगी भी ऐसे ही हैं न?
कभी खुशियों की साये में डूबी
तो कभी अपने आप को भूली
तलाशते हैं एक साया सहारे की'
पर बनी पड़ती हैं कई की साया
ऐसे ही एक एक मोड़पर,जब'
जी रही थी दम खुदकर
न जाने कहा से तो तुम आयअ॥
दर्द में भी अब मुस्कराती हूँ के
उसमें भी थी एक सुंदर सपने की छाया
तब तक तो मेरे पल
काले रंग ही पहचानती थी
पता नही कहाँ खोयी थी
हसी की नवरंगी मोतियों से
तुमने मेरे पल संवारा
पर तुम भी बन गए एक ख्वाब'
क्या मेरे साये ने तुम्हे खाया?


काले साये से समझौता
अब मेरे आदत हो गई हैं॥
न जाने कितने साए
आके गए जीवन में
खुशी कऐ गम हे और
तुम्हारा भी॥

अस्पताल के अंधेरों में
साया परखना मुस्स्किल हैं।
तलाश हैं तो बस
मौत की उस अनदेकी छाया की ॥