Monday 5 July 2010

खामोशियाँ बेहद खुबसूरत हैं
विष कन्या की तरह..
मुचे तो आदत हैं
चाहे जितनी भी वो धसे प्यार बढती हु उससे
घडी के सुइओ क अंतराल में
बारिश में टपकती आसुओं में
पंखे की कद्कदाहत में
एक प्याला प्यास को तरसता मरीज़ में
खलबली सडको में.कालेज कके उजियाले कोनों में
एक दूजे क लिए बने मिथुनों क रति में
दम घुटते बहसों में,नस के गति में
नाकामयाब अस्तित्व तलाश में
चाट रूम के अनजाने चेहरों में एहसासों में,भावनाओं में भी,
क्या करू,बस इसे ही खोजती हु
डर हैं,अब ये सपनो को न धसे.
शायद देर हो चुकी हैं
कच्चे खून को ये ऐसे चूम लिया
की सपने भी खामोश हैं
आखरी दम तक साथ देना मेरा
साए से ज्यादा अब तुम पर भरोसा हैं.

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